Lekhika Ranchi

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राष्ट्र कवियत्री ःसुभद्रा कुमारी चौहान की रचनाएँ ःबिखरे मोती

मंझली रानी ः

(६)
जब मैं पिता जी के घर पहुँची, शाम हो चुकी थी । इस बीच माता जी का देहान्त हो चुका था। भाई भी तीनों, कालेज में थे। घर पर मुझे केवल पिता जी मिले; उन्होंने मुझे अन्दर न जाने दिया; बाहर दालान में ही बैठाला। चिट्ठी पढ़ने के बाद वे तड़प उठे, बोले-जब यह भ्रष्ट हो चुकी है तो इसे यहाँ क्यों लाए ? रास्ते में कोई खाई, खन्दक न मिला, जहाँ ढकेल देते ? इसे मैं अपने घर रक्खूँगा ? जाय, कहीं भी मरे । मुझे क्या करना है ? मैं पिता जी के पैरों पर लोट गई; रोती-रोती बोली--
पिता जी, मैं निर्दोष हूँ। पिता जी दो कदम पीछे हट गये और कड़क कर बोले, "दूर रह चांडालिन निर्दोष ही तू होती तो इतना यह बवंडर ही क्यों उठता ? उन्हें क्या पागल कुत्ते ने काटा था जो बैठे-बैठाए अपनी बदनामी करवाते ? जा, जहाँ जगह मिले, समा जा । मेरे घर में तेरे लिए जगह नहीं है। क्या करें अंगरेजी राज्य न होता तो बोटी-बोटी काट के फेंक देता ।"

इस होहल्ला में समाज के कई ऊँची नाक वाले अगुया और कई पास-पड़ोस वाले भी जमा हो गये । सबने मेरे भ्रष्टाचरण की बात सुनी और घृणा से मुंह बिचकाया। एक बोला 'नहीं भाई, अब तो यह घर में रखने लायक नहीं । जब ससुरालवालों ने ही निकाल दिया तो क्या पंडित रामभजन अपने घर रख कर जात में अपना हुक्का-पानी बन्द करवावेंगे।' दूसरे ने पिता जी पर पानी चढ़ाया 'अरे भाई! घर में रखें तो रखने दो, इनकी लड़की है; पर हम तो पंडित जी के दरवाज़े पर पैर न देंगे।'

मैं फिर एक बार भीतर जाने के लिए दरवाजे की तरफ झुकी; किन्तु पिता जी ने एक झटके के साथ मुझे दरवाजे से कई हाथ दूर फेंक दिया। कुल में दाग़ तो मैंने लगा ही दिया था, वे मुझे घर में रखकर क्या जात बाहर भी हो जाते ? मैं दूर जा गिरी और गिर कर बेहोश हो गई। मुझे जब होश आया है। मेरे घर का दरवाजा बन्द हो चुका था, और मुहल्ले भर में सन्नाटा छाया था। केवल कभी-कभी एक-दो कुत्तों के भूकने का शब्द सुन पड़ता था। मैं उठी; बहुत कुछ सोचने के बाद स्टेशन की तरफ चली। एक कुत्ता भूँक उठा जैसे कह रहा हो कि अब इस मुहल्ले में तुम्हारे लिए जगह नहीं है।

जब मैं स्टेशन पहुँची एक गाड़ी तैयार खड़ी थी। बिना कुछ सोचे-विचारे मैं गाड़ी के एक जनाने डिब्बे में बैठ गई। गाड़ी कितनी देर तक चलती रही, कहाँ-कहाँ खड़ी हुई, कौन-कौन से स्टेशन बीच में आए, मुझे कुछ पता नहीं; किंतु सबेरे जब ट्रेन कानपुर पहुँचकर रुक गई और एक रेलवे कर्मचारी ने आकर मुझे उतरने को कहा तो मैं जैसे चौंक-सी पड़ी। मैंने देखा पूरी ट्रेन यात्रियों से खाली हो गई है, स्टेशन पर भी यात्री बहुत कम थे। ट्रेन से उतरकर मेरी समझ में ही न आता था कि कहाँ जाऊँ। कल इस समय तक जो एक महल की रानी थी, आज उसके खड़े होने के लिए भी स्थान न था। बहुत देर बाद मुझे एकाएक खयाल आया कि सत्याग्रह-संग्राम तो छिड़ा ही हुआ है, क्‍यों न मैं भी चलकर स्वयंसेविका बन जाऊँ और देश-सेवा में जीवन बिता दूँ। पूछती हुई मैं किसी प्रकार कांग्रेस-दफ्तर पहुँची । वहाँ पर दो-तीन व्यक्ति बैठे थे, उन्होंने मुझे पूछा कि मेरे पास किसी कांग्रेस कमेटी का प्रमाण-पत्र है? मैंने कहा 'नहीं ।' तो उन्होंने मुझे स्वयंसेविका बनाने से इनकार कर दिया।

इसके बाद मैं इसी प्रकार कई संस्थाओं और सुधारकों के दरवाजे-दरवाजे भटकी। किंतु मुझे कहीं भी आश्रय न मिला। विवश होकर मैं भूखी-प्यासी चल पड़ी। किंतु जाती कहाँ? थककर एक पेड़ के नीचे बैठ गई। मैंने अपनी अवस्था पर विचार किया। मैं आज रानी से पथ की भिखारिन हो चुकी थी, मेरे सामने अब भिक्षावृत्ति को छोड़कर दूसरा उपाय ही क्या था। इसी समय न जाने कहाँ से एक भिखारिन बुढ़िया भी उसी पेड़ के नीचे कई छोटी-छोटी पोटलियाँ लिए हुए आकर बैठ गई। बड़े इत्मीनान के साथ अपने दिन-भर के माँगे हुए आटे, दाल, चावल को अपने चीथड़े में अच्छी तरह बाँधकर बुढ़िया ने मेरी तरफ देखा। मैंने भी उसकी ओर देखा। दुःख में भी एक प्रकार का आकर्षण होता है, जिसने क्षण-भर में ही हम दोनों को एक कर दिया। भिखारिन बहुत बूढ़ी थी, उसे आँख से कम दिख पड़ता था। भिक्षा-वृत्ति करने के लिए अब उसे किसी साथी या सहारे की जरूरत थी। मैं उसी के साथ रहने लगी।

कई बार मैंने आत्महत्या करनी चाही किंतु उस समय ऐसा मालूम होता कि जैसे कोई हाथ पकड़ लेता हो। मैं आत्मघात भी न कर सकी। लगातार एक साल तक भिखारिन के साथ रहकर मुझे भीख माँगना न आया। आता भी कैसे? मैं बुढ़िया का हाथ पकड़कर उसे सहारा देती हुई चलती, भीख वही माँगा करती। मैं जवान थी, सुंदर थी, फटे-चीथड़े और मैले-कुचैले वेश में भी मैं अपना रूप न छिपा सकती, मेरा रूप ही हर जगह मेरा दुश्मन हो जाता। अपने सतीत्व की रक्षा हेतु मुझे बहुत सचेत रहना पड़ता था और इसीलिए मुझे जल्दी-जल्दी स्थान बदलना पड़ता था।

मेरे बदन की साड़ी फटकर तार-तार हो ग़ई थी। बदन ढँकने के लिए साबित कपड़ा भी न था। प्रयाग में माघी अमावस्या के दिन बड़ा भारी मेला लगता है। बुढ़िया ने कहा, वहाँ चलने पर हमें तीन-चार महीने भर खाने को मिल जाएगा और कपड़ों के लिए पैसे भी मिल जाएँगे। मैं बूढ़ी के साथ पैदल ही प्रयाग के लिए चल पड़ी।

माँगते-खाते कई दिनों में हम लोग प्रयाग पहुँचे। यहाँ पूरे महीने भर मेला रहता है। दूर-दूर के बहुत से यात्री आते हैं। हम लोग रोज सड़क किनारे एक कपड़ा बिछाकर बैठ जाते और दिन-भर भिक्षा माँगकर शाम को एक पेड़ के नीचे अलाव जलाकर सो जाते । एक दिन इसी प्रकार शाम को जब हम दिन भर की भिक्षावृत्ति के बाद लौट रहे थे, एक बग्धी निकली जिसमें कुछ स्त्रियाँ थीं। बुढ़िया एक पैसे के लिए हाथ फैलाकर गाड़ी के पीछे-पीछे दौड़ी। कुछ देर बाद गाड़ी के अंदर से एक पैसा फेंका गया। शाम को घुँधले प्रकाश में बुढ़िया जल्दी पैसा देख न सकी। वह पैसा देखने के लिए कुछ देर झुकी रही। उसी समय, एक मोटर पीछे से और एक सामने से आ गई। बुढ़िया ने बचना चाहा, मोटर वाले ने भी बहुत बचाया, पर बुढ़िया मोटर की चपेट में आ ही गई। उसे गहरी चोट लगी और उसे बचाने की चेष्टा में मुझे भी काफी चोट आई। जिस मोटर की चपेट हम लोगों को लगी थी, उस मोटर वाले ने पीछे मुड़कर देखा भी नहीं, किंतु दूसरी मोटर वाले रुक गए। उसमें से दो व्यक्ति उतरे। मेरे मुँह से सहसा एक चीख निकल गई...।

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